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रविवार, 9 जून 2013

ग्राम अदालतों की प्रासंगिकता पर सवाल

न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने कहा है कि देश का कोई भी नागरिक धन, दूरी और अशिक्षा से न्याय से वंचित नहीं रहे, इसलिए ‘न्याय आप के द्वार’ की अवधारणा के साथ ग्राम न्यायालयों की स्थापना की जा रही है । जनता को त्वरित न्याय दिलाने, निचली और ऊपरी न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों का बोझ कम करने के लिए हाल में ही न्यायमूर्ति कबीर ने राजस्थान में 46वें ग्राम न्यायालय भवन का लोकापर्ण  किया है । वैसे तो पिछले सालों में ही ग्राम न्यायालयों के गठन का फैसला लिया गया था और केंद्रिय मंत्रीमंडल ने इससे संबंधित विधेयक की मंजूरी दे दी थी लेकिन इस दिशा में अब ठोस पहल दिखाई दे रही है ।  योजना यह है कि देश सतर पर छह हजार ‘ग्राम न्यायिक अधिकारियों’ं की भर्ती की जाये जो ग्रामीण स्तर पर मुकदमों का निपटारा कर सकें । सरकार की मंशा है कि न्यायिक सुधार कर आम जनता को उसके द्वार पर ही न्याय उपलब्ध करा दिया जाए जिससे उसे कोर्ट-कचहरी का चक्कर न लगाना पड़े।
इस अवधारणा के पीछे छिपे उद्देश्य की पवित्रता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती । गांवों में आपसी रंजिश, जमीद-जायदाद के बंटवारे, खेत-खलिहान के झगड़े या अन्य छोटे-छोटे घरेलू झगड़ों से संबंधि तमाम मामले निचली अदालतों में बीसियों साल तक लम्बित रहते हैं । कचहरी की दौड़-धूप में पीढ़ी दर पीढ़ी खपती चली जाती है । न्याय की उम्मीद में मजदूर वर्ग अपना पेट काट कर वकील और मुन्शियों का जेब भरता रहता है और न्याय उसके लिए मृगमरीचिका बनी रहती है । बिना ट्रायल के विचाराधीन कैदी सलाखों के पीछे जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा गुजार देते हैं । इनमें से कइयों को युवावस्था में सलाखों के पीछे डाला गया होता है । कुछ बुढ़ापे में जब निर्दोषमुक्त होते हैं तब तक वे जघन्य अपराधों जैसी सजा काट चुके होते हैं । तब उनके लिए इस न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता । मुंछ की लड़ाई में वादी और प्रतिवादी दोनों हारते हैं । दोनों छले जाते हैं । गांव के थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे पैरोकार (दलाल), अनपढ़ गरीबों के मुकदमों की पैरवी कर चाय-पानी का जुगाड़ कर लेते हैं ।
  ऐसे मामलों में यदि त्वरित न्याय नहीं मिलता तो वादी और प्रतिवादी दोनों के लिए यही हितकर होगा कि वे गांव के मामले गांव में निपटाएं । पर कैसे ? इसी समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है ।
ग्राम न्यायालयों की अवधारण कोई नहीं बात नहीं है । महात्मा गांधी ने भी असहयोग आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों को ऐसा करने का निर्देश दिया था पर उस दिशा में सफलता न मिल सकी । हमारे ग्रामीण समाज का ढांचा सामंती है। गांव के दबंगों के खिलाफ गांव में ही बोल पाना गरीब जनता के वश में नहीं होता । जातिवाद के दूसरे घिनौने रूप सामने आ चुके हैं । दलितों की बस्तियों में आग लगाने या गरीबों की बहू-बेटियों पर हाथ डालने की घटनाएं आए दिन समाचारपत्रों में रहती हैं । ऐसे समाज में बिना पर्याप्त सुरक्षा और सामाजिक भेद-भाव को दूर किए ग्राम न्यायालयें को प्रभावशाली बना पाना असंभव होगा । बिचैलिय या पैरोकार कत्तई नहीं चाहेंगे कि मामला गांव में सुलटे । आखिर इससे उनकी कमाई मारी जायेगी । निष्पक्ष न्याय के लिए  ग्राम न्यायिक अधिकारियों की सुरक्षा जरूरी होगी । आज भी देश के तमाम गांवों तक पुलिस बलों की पहुंच किसी घटना, दुर्घटना के समय ही हो पाती है । अब जब कि देश के तमाम हिस्सों में आतंकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद ने अपनी पैठ बना ली है, तमाम बिहड़ों में थानों और पुलिस बलों की सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा होता है, वैसे में गांवों में अदालतें निष्पक्ष काम कैसे करेंगी ? क्या यह संभव नहीं कि कोई गुंड़ा या माफिया न्यायाधिशों को दबाव में लेकर अपने मनमाफिक फैसला करा ले ?
न्याय पंचायतों का ह्रस हमने देखा है । गांव के प्रभावशाली लोगों के दरवाजे पर ही ऐसे न्यायालय काम करते थे । वे ही मेज-कुर्सी चाय-पानी की व्यवस्था करते थे और अपने स्तर से अनपढ़ जनता के मामलों का पक्ष रखते, रखवाते थे । गांव की गरीब जनता तब भी गांव के पुराने जमींदारों के रहमोकरम पर जिंदा थी । गांव की गुटबाजी भी सीधे तौर पर न्याय पंचायतों को प्रभावित करती थी । अब तो गांवों का माहौल पहले की तुलना में और भी खराब हुआ है । पंचायतों के जरिए विकास के नाम पर जो पैसा पहुंच रहा है वह गांव में कटुता, हिंसा और गुटबाजी को बढ़ा रहा है । कमीशनखोरी का विकेन्द्रीकरण गांवों तक हो गया है ।
पूर्व मुख्य न्यायाघीश वी0एन0खरे के अनुसार नियमित अदालतों में न्यायाधीशों की कमी देखते हुए ग्रामीण अदालतों के लिए छह हजार योग्य न्यायाधीशों को ढूंढना आसान न होगा । ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए कि वर्तमान न्यायिक तंत्र का और विस्तार किया जाता, उसे सुदृढ़ और सार्थक बनाया जाता । जजों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की जाती, वादों के निस्तारण की समय सीमा तय होती और वकीलों की मनमानी नियंत्रित की जाती । हमारे देश में न्याय व्यवस्था  पर दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम खर्च किया जाता है । दूसरी ओर ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए तो अत्याधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी । अगर प्र्याप्त धन उपलब्ध न हो पाया तो आधे-अधूरे प्रयास निरर्थक हांेगे ।
 हमारे यहां वादों के निपटाने का ढं़ाचा औपनिवेशिक काल का है । उलझाऊ जिरह और झूठी गवाही भी मुकदमों की नियति तय करते हैं । गवाहों की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण भयवश लोग गवाही देने से बचते हैं । यहां वादों की प्रवृति के आधार पर समय सीमा तय नहीं होती । इसलिए तारीख दर तारीख लगती जाती है । वाद दायर करने की जटिलता, वकीलों पर निर्भरता और उनकी मनमानी, आए दिन हड़ताल पर चले जाना, मामले को लम्बे समय तक लटकाए रहना, पक्षकारों का शोषण करने का औंजार बन गया है । फीस की दर अनियंत्रित है । वकीलों की संख्या और गुणवत्ता तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है ।
बेहतर यह होता कि पहले इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जाता । छोटे-छोटे मामलों का निस्तारण तो ग्राम सभा और सरपंचों के माध्यम से किए जाने के लिए कारगर दिशा निर्देश बनाए जा सकते हैं । ज्यादातर गांवों में पंचायत घर बने हुए हैं । उनमें सामान्य मामलों को निपटाने के लिए कुछ कानूनी अधिकार दिए जा सकते हैं । सम्यक फैसलों को स्वीकार करने की कानूनी व्यवस्था कर, बिना अतिरिक्त धन खर्च किए इस दिशा में कुछ बेहतर काम किया जा सकता है । विकास संबंधी कार्य और न्यायिक कार्यों के लिए ग्राम सभा का विभाजन किया जा सकता है । आज ज्यादातर ग्राम प्रधान केवल कमीशनबाजी में उलझ कर रह गए हैं । आखिर ग्रामीण अदालतों के फैसलों के खिलाफ ऊपरी अदालतों में अपील की आजादी मुकदमों के बोझ को तो कम होने नहीं देगी ? इसलिए बेहतर होगा कि छह हजार ग्राम न्यायिक अधिकारियों की संख्या जनपदीय न्यायालयों में बढ़ाकर, उन्हें बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराकर लम्बित वादों का त्वरित निस्तारण किया जाता ।
 

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