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रविवार, 9 जून 2013

कुलीनतावादः आरक्षण से आशीष नंदी तक

दलितों और पिछड़ों को सत्ता और समाज की मुख्यधारा में लाने के आधे-अधूरे प्रयास और उनके पढ़े-लिखे तबके में समानता की चाह ने कुलिनतावादियों के अंदर कई प्रकार की बैचैनी पैदा की है । उन्हें  आक्रमण करने के लिए जो सबसे कारगर हथियार मिला है, वह है योग्यता का जन्मजात एकाधिकार और वे कतई यह विश्वास करने को तैयार नहीं हैं कि कुल मिलाकर आरक्षण ने समाज की योग्यता को प्रतिस्पर्धा के द्वारा निखारा है । एक ओर जहां वे अति आधुनिक होते समाज के दोहन के औंजारों को अपने अनुकूल बनाने में लगे हैं तो दूसरी ओर वृहत्त समाज की प्रतिस्पर्धा को कुंठित और हतोत्साहित करने के तमाम दोगले रास्ते भी अख्तियार करते नजर आ रहे हैं । अमूमन आज के कुलीनतावादियों की नई पौधों के दिमाग में यह बात डाली जा चुकी है कि आरक्षण के चलते उनका नुकशान हो रहा है और पिछड़े या दलित उनका हक मार रहे हैं । वे अपने हक के लिए और अवसरों की मांग नहीं करते, बल्कि दलितों को क्यों रिआयत मिले, इस बात से कुंठित हैं । ये कुलीनतावादी, प्रोमोशन में आरक्षण के सवाल पर पिछड़ों को अपने पाले में डालने की पूरी कोशिश में लगे हैं तो जातिदंश के विरूद्ध विद्रोह को दबाने के लिए पिछड़ों को कुछ हद तक, बेशक वह ऊपरी तौर पर ही सही, अपनी ओर खिसका कर एक सामाजिक सेफ्टीवाल्व का निर्माण कर चुके हैं और कहीं-कहीं तो दलितों पर अत्याचार की अगुवाई, पिछड़ों से कराने के कुचक्र में सफल भी हुये हैं ।
  पिछड़ों को इस तथ्य को समझना हेागा कि दलित विरोध से उनका भला नहीं होने वाला । सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण का झुनझुना, ख्याली पुलाव है । पिछड़ों  के कुछ तबके ऐसी स्थिति में आ चुके हैं जो स्वतः उससे अधिक पाने के हकदार हैं । कई प्रतियोगिताओं में यह देखने को मिला है कि पिछड़ों के प्राप्तांक, सवर्णो से कम नहीं रहे । ऐसे में या तो उन्हें आबादी के अनुरूप आरक्षण मिले अन्यथा सत्ताइस प्रतिशत के भुलावे से मुक्त हुआ जाये ।  
अस्सी के दशक के बाद से कुलीनतावादियों को लगा की आरक्षण के सवाल को, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित पचास प्रतिशत की बाड़ेबंदी के अलावा वे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं तो उन्होंने अपने आक्रमण के तरीके बदल लिए । सबसे पहले यह विचार उछाला गया कि गांव-देहात से जो लड़के उच्च शिक्षा संस्थानों में आते हैं, वे पठन-पाठन का माहौल खराब करते हैं । उन्हें रोकने के लिए जो तरीके इजाद किए गये उनमें प्राथमिक पाठशालाओं में अध्यापकों की भर्ती रोक कर, उन्हें मात्र खिचड़ी खिलाने का संस्थान बना दिया गया । वित्तविहीन स्कूलों की स्थापना कर माध्यमिक शिक्षा को न केवल बर्बाद किया गया बल्कि नकल माफियाओं को सक्रिय कर पूरी सरकारी पढ़ाई-लिखाई को ककहरा ज्ञान तक सीमित कर दिया गया । कोढ़ में खाज का काम किया हर हाल में पास कराऊ नीति या जल्दी-जल्दी बिना पढ़े उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन ।  उसी के समानान्तर पब्लिक स्कूलों में, जहां न तो आरक्षण की गुजाईश थी और न गरीबों के बस में फीस चुका पाने की क्षमता, वहां कुलिनतावादियों के बच्चों ने एकाधिकार जमा कर बेहतर शिक्षा को एक बार फिर अपने गिरफ्त में ले लिया । देश की शिक्षा नीति का खाका तैयार करने की जिम्मा अम्बानी और बिड़ला जैसे उद्योगपतियों को दिया गया जिन्होंने न केवल ऊंची फीस दरों की वकालत की बल्कि तकनीकि संस्थानों को नीजि हाथों में सौंप कर ‘पेड सीटों’ की निलामी कर बहुत हद तक आरक्षण के प्रभाव को नेस्तनाबूद कर दिया । यह एक प्रकार से पैसे वालों के अयोग्य बच्चों के लिए अपरोक्ष आरक्षण है, जिसका लाभ कुलीनतावादियों को मिल रहा है । जो लोग आरक्षण के सवाल पर योग्यता की बात करते हैं वे कभी भी पेड सीटों के औचित्य पर सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी महंगी होती पढ़ाई और भाषा की कुलीनता का सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी मातृ भाषा में शिक्षा का सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी नई तकनीति के निरंतर बदलते रहने और इस दौड़ में गांव के व्यापक दलितों और पिछड़ों को पीछे ढकेलने का सवाल नहीं उठाते ।
नई अर्थव्यवस्था की कोख से शिक्षा और स्वास्थ्य पर एकाधिकार करने वाली व्यवस्था पैदा की गई है जो कुलीनतावाद का पोषण करती है तथा दलितों और पिछड़ों का रक्त चूसती है ।  यहीं से भ्रष्टाचार का भी विकृत विकार पैदा किया गया है । सत्ता संस्थानों के अरबों की लूट को पचाने के लिए गांव की पंचायती व्यवस्था में खैरातबांटू योजनाओं के सहारे लूट के अवसर उपलब्ध करा कर, हम्माम में सब नंगे का पाठ पढ़ा, मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह ध्वस्त किया गया है और एक खास तरह के सता केन्द्र का निमार्ण कर दलितों और पिछड़ों को साधने का काम किया गया । ऐसी संस्कृति में भ्रष्टाचार और अपने सारे कुकर्मो को ढंकने के लिए ‘मैं अन्ना हूं’ जैसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी विकसित किये गये । कारपोरेट लूट को संरक्षण और जनतांत्रिक शक्तियों को गुमराह करते हुये, एन.जी.ओ. का फैलाव कर, बचे खुचे सरकारी गढ़ों पर कब्जा जमा लेने का कुचक्र रचा गया । सरकारी नौकरियों में नब्बे के दशक से भर्तियों को सीमित कर, तमाम दायित्वों को अपने हाथों में ले लेने की चाल, आरक्षण के प्रभाव को सीमित करने का एक और हथियार है । बेशक भ्रष्टाचार एक मुद्दा तो है, लेकिन भ्रष्टाचार की लड़ाई में जो महारथी शामिल हैं तो तेलगी घोटाले से लेकर टू जी घोटाले के वाहक हैं । वे देश की प्राकृतिक संपदा को दोहन करने का आधार तैयार करने में लगे हैं । उनकी नजर में अरबों के घोटाले, व्यवसाय की हिस्सा होते हैं और एक सरकारी मुलाजिम द्वारा सौ रुपये  रिश्वत, जेल के लिए पर्याप्त होती है । 
ऐसी संस्कृति से कुलीनतावाद फलता-फूलता है और समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था पर उसका आधिपत्य स्थापित हो जाता है । योग्यता की दुहाई देने वाले कुलनों ने कभी भी दलितों की योग्यता को सम्मान नहीं दिया है और बहुत हद तक उसको दोयम दर्जे का सिद्ध करने का षणयंत्र किया है ।
 यूं तो विश्वपटल पर भी जातिवाद, नस्लभेद या रंगभेद के रूप में कुलीनतावाद दिखाई देता है पर उसका चरित्र भारतीय समाज के कुलीनतावादी चरित्र से भिन्न हैं । हमारे यहां कुलीनतावाद, वर्णवाद से घुलामिला है जो आशीष नंदी जैसों की जुबान से राजनैतिक सवालों को कुलीनतावादी बेशर्मी से उठाता है कि ‘यह एक तथ्य है कि सबसे अधिक भ्रष्ट ओ.बी.सी. और अनुसूचित जातियों से आते हैं और अब तेजी से अनुसूचित जनजातियों के लोग भी शामिल होते जा रहे हैं ।’ उसके पास कोई तथ्य, कोई आधार न होते हुये भी पश्चिमी बंगाल का एक ऐसा बेहूदा उदाहरण है, जिसे किसी भी समाजशास्त्रीय नजरीये से प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।   वह यह बताने को तैयार नहीं कि स्वीस बैंकों में जिनके पैसे जमा हैं वे किस जाति या वर्ग के हैं  या 2- जी स्पेक्ट्रम का 1.7 लाख करोड़, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का 70,000 करोड़, तेलगी के घोटाले का 20,000 करोड़, सत्यम का 14,000 करोड़, बोर्फोस का 16 मीलियन डालर, जैन हवाला का 18 मीलियन डालर, आई.पी.एल, हर्षद मेहदा, केतन पारेख और इंडिया बैंक कर्ज के घोटालों में किस जाति या वर्ग के लोग शामिल थे । केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने जिन 95 भ्रष्ट अफसरों की सूची जारी की है उनमें 6 दलितों और पिछड़ों के अलावा कौन हैं ?
 आशीष नंदी के बयान के ‘वैचारिक पक्ष’ को समझाने में तमाम विचारवान लग हुये हैं । कुछ का कहना है कि ‘अन्योक्ति और वक्रोक्ति’ में अपनी बात कहने के आदी नंदी के बयान की चर्चा करने के बजाय उनके ‘विचार’ समझने की कोशिश करनी चाहिए जिससे कि उनके जैसे ‘अंतर्दृष्टि संपन्न समाज-शास्त्री के साथ अन्याय न हो । दरअसल विचार की गूढ़ता, दार्शनिकता और उसके भावों के सहारे, सरल, सीधे, अल्पविकसित या विकासमान समाज का आखेट करना आसान होता है । यह आखेट, सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों रूपों में संभव है । अब यहां कौन सकारात्मक और कौन नकारात्मक की भूमिका है, इसे आशीष नंदी के पिछले विचारों को परखने की भी जरूरत है । राजस्थान के देवराला सती कांड के समय नंदी साहब ने फरमाया था कि सती होना, महान भारतीय परंपरा से प्रेरित एक अत्यंत साहसिक कृत्य है और रूप कुंवर की हिंसक मृत्यु, आधुनिकता की ताकतों के खिलाफ परंपरा के दावे का सशक्त प्रतीक है । नंदी साहब सेकुलरवाद की व्याख्या में कहते हैं कि यह पश्चिमी दुनिया में प्रयोग में आनेवाला शब्द है जिसे भारत ने आयात कर लिया है । इतिहासकार संजय सुब्रह्मण्यम ने इस बात की आलोचना करते हुये कहा है कि ‘सेकुलरवाद’ पश्चिम में आम प्रचलन का शब्द नहीं है और न भारत में उसका वही अर्थ है जो युरोप में । नंदी साहब हिन्दू न होते हुये भी भारत के अतीत के दलित विरोधी वाले स्वर्णिम युग के प्रति रूमानी मोह भी रखते हैं । खेद का विषय तो यह है कि कुछ पिछड़े और दलित विचारक भी उनके वक्तव्य का मर्म ठीक वैसे ही समझाने लगे हैं जैसे ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, इ सब ताड़न के अधिकारी’ का अर्थ कुलीनतावादी समझाते हैं कि दरअसल तुलसी दास ‘ताड़न’ नहीं, शूद्रों के ‘तारन’ अर्थात ‘तारण’ की बात करते हैं ।
 कुल मिलाकर यही कुलीनतावादियों के ‘विचार’ का मामला है । दलित विरोधी बयानों के बाद अक्सर उन्हें विचार का ख्याल आता है । अगर दलितों और पिछड़े ज्यादा भ्रष्ट हैं तो दुनिया के भ्रष्ट देशों में भारत का 94वां स्थान क्यों है ? क्या सत्ता में दलितों बौर पिछड़ों की भागीदारी 50 प्रतिशत से अधिक हो गई है ? जहां तक पिछड़ों की संख्या का सवाल है, वह कुछ राज्यों में 27 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद, अभी भी वे प्रशासकीय पदों पर चार प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाये हैं, आई.ए.एस जैसे पदों पर तो वे दो प्रतिशत से भी कम हैं । फिर भ्रष्टाचार कहां पनप रहा है ? दरअसल कुछ चालाक और धूर्त, सदियों से लूट का माल अकेले खाते रहे हैं । अब उन खुला चरने वाले सांड़ों को चुनौती मिल रही है सो बेचैन हैं । सबसे ज्यादा दलित और पिछड़ों को, तमाम सामाजिक बंधनों के सहारे लूट कर अपना घर भरने वाले अगर उन्हें ही भ्रष्ट कहते हैं तो यह समाज में हुये आर्थिक विकास और उससे उपजे नये विचारों की एक बानगी भर है ।
जो कुलीनतावादी हिन्दू समाज में अंतर्निहित जातिद्वेष की समाप्ति की घोषणा करते हैं उन्हें तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में दलितों की 285 झोपडि़यों में आग लगा देने वाली घटना का संदर्भ लेना चाहिए जहां एक दलित लड़के के सवर्ण लड़की से ब्याह रचा लेने से  कुलीन जाति का लड़की का पिता, दलित दामाद को स्वीकार करने के बजाय, आत्महत्या कर लेता है । पटना विश्वविद्यालय के भीमराव अम्बेडकर वेल्फेयर छात्रावास पर सैदपुर छात्रावास के कुलीन जाति के कुख्यात लड़के,  हाकी, डंडों से लैश हो ‘ब्रह्मेश्वर मुखिया जिंदाबाद,’ ‘मुखिया अमर रहें’ का नारा लगाते हुए आक्रमण करते हैं, बम, कट्टों से लैश हो कहते हैं कि ‘तुम हरिजन हो ? तुम्हें पढ़ने-लिखने का कोई हक नहीं । तुम्हारा काम जूता-चप्पल पालिस करना है । तुम्हारे पूर्वज भी यही काम करते आये हैं । तुम छात्रावास छोड़ दो नहीं तो जनसंहार हो कर रहेगा ।’ वे दबाव बना कर अम्बेडकर छात्रावास की बिजली  और पानी की आपूर्ति बंद करा देते हैं और पिछड़ों की सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होती ।

 ऐसे में पिछड़ों को सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपने चक्षु खुले रखने होंगे । अजीब बिडम्बना है कि जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियां, जातिवाद की प्रताड़ना से आहत तो दिखती हैं पर दलितों को प्रताडि़त या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण , शादी-ब्याह के अवसर पर दलितों को खिलाने में या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नजरिया सवर्ण रखते हैं वही नजरिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबंदी अभी तक नहीं बन पाई है और पूरा हिन्दी समाज दलित,कुर्मी,लोधी,यादव,सैनी,पटेल,गंगवार आदि में बंटा पड़ा है । आजादी के साठ वर्षों के बाद भी अधिकांश पढ़े-लिखे दलितों या पिछड़ों में सकारात्मक सोच या आत्मबल पैदा नहीं हो पाया है । वे स्वयं जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं । वे प्रतिक्रिया स्वरूप वही व्यवहार करते हैं जो उनके साथ सवर्ण समाज ने किया होता है । यानी कि जातिवादी मानसिकता के खिलाफ जातिवादी मानसिकता । ऐसी मानसिकता जातिवाद से मुक्त करने के बजाए, उसे और मजबूत करती है । उनका नुकसान करती है । इसलिए जरूरत है वैचारिक रूप से मजबूत क्रांतिकारी पहल की ।
 जातिवादी हथियार के बल पर ही कुलीनतावादियों ने लम्बे समय तक राज किया है । लम्बे समय से शिक्षा, ज्ञान, समृद्धि पर एकाधिकार बनाए रखा है और सदियों से वंचित वर्ग को खुली प्रतियोगिता में उतरने की चुनौती दी है । यहां सिर्फ यही कहना पर्याप्त होगा कि पौष्टिक भोजन करने वालों की कुपोषण के शिकार लोगों से दौड़ कराने की नीति न्यापरक नही कही जा सकती  जातिवाद में विश्वास न करने वाले वामपंथ को जाति-दंश की भयावहता को समझना होगा । केवल आर्थिक संरचना को ध्यान मेें रखते हुए समाज के वर्गीय अवधारण से संधर्ष करने की कार्यनीति सफल न होगी । सामाजिक-अस्मिता की अनदेखी उन्हें हाशिये पर रखेगी । समाज के वर्गीय अवधारण के विरूद्ध संघर्ष शुरू करने के पूर्व जातिवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष विकसित किया जाना चाहिए । अपने नेतृत्व में पिछड़ों और दलितों को आगे कर जातिवाद के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा करना होगा। अन्यथा न तो आरक्षण के प्रश्न पर बंटे समाज को समझाया जा सकता है और न आशीष नंदी जैसों की शरारती बातों को रोका जा सकता है

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