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रविवार, 9 जून 2013

दूध बैंक की अवधारणा का अमानवीय पक्ष

मां का दूध नवजातकों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी होने के कारण मुम्बई, पूणे, सूरत और कोलकाता में दूध बैंकों की स्थापना की जा चुकी है और उसी कड़ी में उदयपुर में नया दूध बैंक की स्थापित किया गया है । अपने देश में बच्चों को मां का दूध न पिलाने के कारण नवजातकों की मृत्युदर 1000 की जनसंख्या पर 46 पाई जाती है । ऐसे में जिन लावारिश बच्चों या असहाय मांओं के बच्चों को किन्हीं कारणों से मां का दूध नहीं मिल पाता, उनको बचाने की यह पहल स्वागत योग्य कही जा सकती है लेकिन क्या हकीकत में इस अवधारण के पीछे ऐसी ही नेक नियति है ? कुछ शिशुओं को मां का दूध न मिल पाना, अगर समस्या हो तो उसका हल निकालना बुरी बात नहीं लेकिन देखा यह जा रहा है कि स्तनपान कराने के तमाम प्रचार के बावजूद, शारीरिक काया को संरक्षित रखने के नाम पर मांएं अपने स्तन से शिशुओं को दूर रख रही हैं । उनके लिए शारीरिक आकार-प्रकार की सुरक्षा का प्रश्न ज्यादा जरूरी है । डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ और बोतल के दूध से उनके बच्चे पलते हैं । ऐसी मांएं ज्यादातर मध्यमवर्ग और सम्पन्न घरों की होती हैं । झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वाली या गांव देहात की गरीब महिलाएं अपने शिशुओं को अपना दूध पिलाती हैं । उनके सामने शिश्ुा पालन का और कोई विकल्प नहीं होता । जब यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि मां का दूध भविष्य में होने वाली तमाम बीमारियों से रक्षा करता है और शरीर में प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता है तो सभी मांओं की इच्छा होती है कि उनके बच्चों को मां का दूध मिले । प्रश्न शारीरिक सुन्दरता की रक्षा का फिर भी सामने रहता है । ऐसे में इसके विकल्प की तलाश तेज कर दी गई है । 
विकास की प्रक्रिया अंततः गरीबों की कीमत पर आगे बढ़ती है । वह मानवीय संवेदना का क्षरण करती है और शारीरिक और आर्थिक लाभ पर ज्यादा जोर देती है । इसी क्रम में मां का दूध उपलब्ध कराने के लिए दूध बैंक स्थापित करने की कार्ययोजना को अमली जामा पहनाया जा रहा है, ठीक ब्लड बैंक की तर्ज पर । ब्लड बैंकों का यथार्थ हमारे सामने है । आम जनता के लिए उनकी उपयोगिता पर बराबर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं । जाहिर है, कुछ मानवीय पहलुओं के बावजूद, ज्यादातर ब्लड बैंक साधन संपन्न लोगों के काम आए हैं, वो भी गरीबों ,लाचारों की कीमत पर, जो भूख और गरीबी से तंग आकर मजबूरीवश अपना खून बेचने को बाध्य हुए हैं और देश के तमाम ब्लड बैंकों को भरे हुए हैं । इन ब्लड बैंकों में अमीरों का खून नही है । जब कभी उन्होंने अपना खून दिया भी है तो फोटो छपवाकर अपने अमानवीय चेहरे पर लगे दाग-धब्बों को धोया है ।
हाल के दिनों में तो ऐसी तमाम घटनाएं देखने-सुनने में आई हैं जिनमें गरीबों को बंधक बनाकर उनका खून चूसा गया है । ‘खून चूसवा’ कांड के तमाम गिरोह पकड़े गए हैं जो रोज बंधक बनाकर लोगों का खून निकाल लेते थे और बदले में उन्हें जीने भर को भोजन देते थे ।  अब भी संभव है देश के कुछ निजी अस्पतालों में खून निचोड़ने का अमानवीय कार्य हो रहा हो जिनकी पीड़ा के स्वर बाहर न सुनाई पड़ रहे हों । गरीबों, लाचार लोगों की जुबान नहीं होती ।  लाचार गरीबों के  पास अपना खून बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता । कुछ स्वेच्छा से ऐसा करते हैं तो कुछ को असामाजिक तत्व बंधक बना कर जोर-जबरदस्ती से ऐसा कराते हैं । बदले में उन्हें दस-बीस रुपए थमा दिए जाते हैं । ब्लड बैंकों में इन्हीं गरीबों का खून ऊंची कीमतों पर बिकता है ।
मानव अंगों की तस्करी की तमाम घटनाएं भी गरीबों को शिकार बना कर अमीरों के स्वास्थ्य की रक्षा करती जान पड़ती हैं । ऐसे में हमें दूध बैंक की नई अवधारणा के मानवीय पक्षों  पर विचार करना चाहिए । जिन शहरों में ऐसी अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा चुका है वहां मांओं से दूध दान करा कर, किन के बच्चों को उपलब्ध कराया गया, इस संबंध में भी आंकड़े आने चाहिए । जिन मांओं के स्तनों में दूध नहीं उतरता अगर उनके या लावारिस बच्चों को दूध बैंक द्वारा मदद की गई हो तो बेहतर । लेकिन हकीकत यह है जिन मांओं को दूध नहीं होता, उनमें से ज्यादातर कुपोषण की शिकार होती हैं और ये दूध बैंक उनके बच्चों की पहुंच से बाहर होते हैं । दूसरी ओर संपन्न घरों की महिलाएं, दूध बैंक के लिए कतई दूध नहीं दे सकतीं बल्कि अपनी सुन्दरता को बचाये रखने के लिए अपने स्तनों से दूध पिलाने के बजाए अपने शिशुओं के लिए इन दूध बैंकों से दूध खरीद रही हैं ।
हमें इस तथ्य पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्या मुम्बई का दूध बैंक वाकई में संपन्न घरों की मांओं के दूध दान से बना है या झुग्गियों  में रहने वाली लाखों गरीब मांओं के दूध दान से । हमारे देश की गरीब मांओं का स्वास्थ्य इतना बेहतर नहीं होता जिससे वे प्रचुर मात्रा में दूध बेच सकें । वे अपने शिशुओं का पेट काट कर ही दूध बैंक को दूध बेचेंगी और अपने शिशुओं को कुपोषित रखेंगी । इसलिए जो लोग दूध बैंक की अवधारणा की वकालत कर रहे हैं वे लोग गरीबों के शिशुओं का पेट काट कर  अमीरों के शिशुओं को मां का दूध उपलब्ध कराने की योजना बना रहे हैं । एक ओर गरीब मांएं बार-बार अपना दूध बेच कर स्वास्थ्य खराब करेंगी तो दूसरी ओर अमीर मांएं स्वयं अपना दूध अपने शिशुओं को न पिलाकर अपने स्तनों का कसाव बरकरार रखेंगी । यानी, गरीब के स्वास्थ्य की कीमत पर अमीर के सौंदर्य की रक्षा ।  दरअसल मानवीय दृष्टिकोण से योजनाअेंा को स्थापित तो किया जाता है पर उसके पीछे छिपे अमानवीय और स्वार्थी दृष्टिकोण को छिपा दिया जाता है । इस योजना की शुरूआत उन्हीं शहरों में हो सकी है जहां झुग्गियां ज्यादा हैं ।  इस प्रकार से दूध बैंक की स्थापना कर, साधन संपन्न लोगों के शिशुओं के लिए डेरी उद्योग की स्थापना की जा रही है ।
एक और पहलू पर और विचार करने की जरूरत है वह यह कि मांएं अपने स्तनों से बच्चों को लगा कर जब अपना दूध पिलाती हैं तब न केवल पोषक तत्वों की भरपाई करती हैं अपितु संवेदनात्मक अनुभूति का आदान-प्रदान भी करती हैं । मां के स्तनों से चिपके शिशुओं में मां के प्रति जो भाव उत्पन्न होते हैं वह दूध बैंक के दूध को चम्मच से पिलाकर कतई पैदा नहीं किया जा सकता । शिशुओं को दूध बैंक का दूध देकर आप पोषकतत्वों की भरपाई तो कर सकते हैं, लेकिन तमाम मानवीय संवेदनाओं का संरक्षण  नहीं कर सकते । भविष्य में इस बैंक की लागत और व्यवसायिकता में वृद्धि होगी । मांओं के दो रूप विकसित होंगे । एक मां अपना दूध बेचेगी और दूसरी उसका दूध खरीद कर अपने शिशुओं को पिलायेगी । ठीक उसी तरह जैसे एक वर्ग अपना खून बेच रहा है और दूसरा अपने मरीज को अपना खून देने के बजाय ,खरीद कर काम चला रहा है । इसलिए हमें ऐसी अवधारणा को लागू करने के पूर्व इसके अमानवीय पक्षों पर जरूर विचार कर लेना चाहिए ।

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