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रविवार, 9 जून 2013

दूध बैंक की अवधारणा का अमानवीय पक्ष

मां का दूध नवजातकों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी होने के कारण मुम्बई, पूणे, सूरत और कोलकाता में दूध बैंकों की स्थापना की जा चुकी है और उसी कड़ी में उदयपुर में नया दूध बैंक की स्थापित किया गया है । अपने देश में बच्चों को मां का दूध न पिलाने के कारण नवजातकों की मृत्युदर 1000 की जनसंख्या पर 46 पाई जाती है । ऐसे में जिन लावारिश बच्चों या असहाय मांओं के बच्चों को किन्हीं कारणों से मां का दूध नहीं मिल पाता, उनको बचाने की यह पहल स्वागत योग्य कही जा सकती है लेकिन क्या हकीकत में इस अवधारण के पीछे ऐसी ही नेक नियति है ? कुछ शिशुओं को मां का दूध न मिल पाना, अगर समस्या हो तो उसका हल निकालना बुरी बात नहीं लेकिन देखा यह जा रहा है कि स्तनपान कराने के तमाम प्रचार के बावजूद, शारीरिक काया को संरक्षित रखने के नाम पर मांएं अपने स्तन से शिशुओं को दूर रख रही हैं । उनके लिए शारीरिक आकार-प्रकार की सुरक्षा का प्रश्न ज्यादा जरूरी है । डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ और बोतल के दूध से उनके बच्चे पलते हैं । ऐसी मांएं ज्यादातर मध्यमवर्ग और सम्पन्न घरों की होती हैं । झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वाली या गांव देहात की गरीब महिलाएं अपने शिशुओं को अपना दूध पिलाती हैं । उनके सामने शिश्ुा पालन का और कोई विकल्प नहीं होता । जब यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि मां का दूध भविष्य में होने वाली तमाम बीमारियों से रक्षा करता है और शरीर में प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता है तो सभी मांओं की इच्छा होती है कि उनके बच्चों को मां का दूध मिले । प्रश्न शारीरिक सुन्दरता की रक्षा का फिर भी सामने रहता है । ऐसे में इसके विकल्प की तलाश तेज कर दी गई है । 
विकास की प्रक्रिया अंततः गरीबों की कीमत पर आगे बढ़ती है । वह मानवीय संवेदना का क्षरण करती है और शारीरिक और आर्थिक लाभ पर ज्यादा जोर देती है । इसी क्रम में मां का दूध उपलब्ध कराने के लिए दूध बैंक स्थापित करने की कार्ययोजना को अमली जामा पहनाया जा रहा है, ठीक ब्लड बैंक की तर्ज पर । ब्लड बैंकों का यथार्थ हमारे सामने है । आम जनता के लिए उनकी उपयोगिता पर बराबर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं । जाहिर है, कुछ मानवीय पहलुओं के बावजूद, ज्यादातर ब्लड बैंक साधन संपन्न लोगों के काम आए हैं, वो भी गरीबों ,लाचारों की कीमत पर, जो भूख और गरीबी से तंग आकर मजबूरीवश अपना खून बेचने को बाध्य हुए हैं और देश के तमाम ब्लड बैंकों को भरे हुए हैं । इन ब्लड बैंकों में अमीरों का खून नही है । जब कभी उन्होंने अपना खून दिया भी है तो फोटो छपवाकर अपने अमानवीय चेहरे पर लगे दाग-धब्बों को धोया है ।
हाल के दिनों में तो ऐसी तमाम घटनाएं देखने-सुनने में आई हैं जिनमें गरीबों को बंधक बनाकर उनका खून चूसा गया है । ‘खून चूसवा’ कांड के तमाम गिरोह पकड़े गए हैं जो रोज बंधक बनाकर लोगों का खून निकाल लेते थे और बदले में उन्हें जीने भर को भोजन देते थे ।  अब भी संभव है देश के कुछ निजी अस्पतालों में खून निचोड़ने का अमानवीय कार्य हो रहा हो जिनकी पीड़ा के स्वर बाहर न सुनाई पड़ रहे हों । गरीबों, लाचार लोगों की जुबान नहीं होती ।  लाचार गरीबों के  पास अपना खून बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता । कुछ स्वेच्छा से ऐसा करते हैं तो कुछ को असामाजिक तत्व बंधक बना कर जोर-जबरदस्ती से ऐसा कराते हैं । बदले में उन्हें दस-बीस रुपए थमा दिए जाते हैं । ब्लड बैंकों में इन्हीं गरीबों का खून ऊंची कीमतों पर बिकता है ।
मानव अंगों की तस्करी की तमाम घटनाएं भी गरीबों को शिकार बना कर अमीरों के स्वास्थ्य की रक्षा करती जान पड़ती हैं । ऐसे में हमें दूध बैंक की नई अवधारणा के मानवीय पक्षों  पर विचार करना चाहिए । जिन शहरों में ऐसी अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा चुका है वहां मांओं से दूध दान करा कर, किन के बच्चों को उपलब्ध कराया गया, इस संबंध में भी आंकड़े आने चाहिए । जिन मांओं के स्तनों में दूध नहीं उतरता अगर उनके या लावारिस बच्चों को दूध बैंक द्वारा मदद की गई हो तो बेहतर । लेकिन हकीकत यह है जिन मांओं को दूध नहीं होता, उनमें से ज्यादातर कुपोषण की शिकार होती हैं और ये दूध बैंक उनके बच्चों की पहुंच से बाहर होते हैं । दूसरी ओर संपन्न घरों की महिलाएं, दूध बैंक के लिए कतई दूध नहीं दे सकतीं बल्कि अपनी सुन्दरता को बचाये रखने के लिए अपने स्तनों से दूध पिलाने के बजाए अपने शिशुओं के लिए इन दूध बैंकों से दूध खरीद रही हैं ।
हमें इस तथ्य पर भी विचार करने की जरूरत है कि क्या मुम्बई का दूध बैंक वाकई में संपन्न घरों की मांओं के दूध दान से बना है या झुग्गियों  में रहने वाली लाखों गरीब मांओं के दूध दान से । हमारे देश की गरीब मांओं का स्वास्थ्य इतना बेहतर नहीं होता जिससे वे प्रचुर मात्रा में दूध बेच सकें । वे अपने शिशुओं का पेट काट कर ही दूध बैंक को दूध बेचेंगी और अपने शिशुओं को कुपोषित रखेंगी । इसलिए जो लोग दूध बैंक की अवधारणा की वकालत कर रहे हैं वे लोग गरीबों के शिशुओं का पेट काट कर  अमीरों के शिशुओं को मां का दूध उपलब्ध कराने की योजना बना रहे हैं । एक ओर गरीब मांएं बार-बार अपना दूध बेच कर स्वास्थ्य खराब करेंगी तो दूसरी ओर अमीर मांएं स्वयं अपना दूध अपने शिशुओं को न पिलाकर अपने स्तनों का कसाव बरकरार रखेंगी । यानी, गरीब के स्वास्थ्य की कीमत पर अमीर के सौंदर्य की रक्षा ।  दरअसल मानवीय दृष्टिकोण से योजनाअेंा को स्थापित तो किया जाता है पर उसके पीछे छिपे अमानवीय और स्वार्थी दृष्टिकोण को छिपा दिया जाता है । इस योजना की शुरूआत उन्हीं शहरों में हो सकी है जहां झुग्गियां ज्यादा हैं ।  इस प्रकार से दूध बैंक की स्थापना कर, साधन संपन्न लोगों के शिशुओं के लिए डेरी उद्योग की स्थापना की जा रही है ।
एक और पहलू पर और विचार करने की जरूरत है वह यह कि मांएं अपने स्तनों से बच्चों को लगा कर जब अपना दूध पिलाती हैं तब न केवल पोषक तत्वों की भरपाई करती हैं अपितु संवेदनात्मक अनुभूति का आदान-प्रदान भी करती हैं । मां के स्तनों से चिपके शिशुओं में मां के प्रति जो भाव उत्पन्न होते हैं वह दूध बैंक के दूध को चम्मच से पिलाकर कतई पैदा नहीं किया जा सकता । शिशुओं को दूध बैंक का दूध देकर आप पोषकतत्वों की भरपाई तो कर सकते हैं, लेकिन तमाम मानवीय संवेदनाओं का संरक्षण  नहीं कर सकते । भविष्य में इस बैंक की लागत और व्यवसायिकता में वृद्धि होगी । मांओं के दो रूप विकसित होंगे । एक मां अपना दूध बेचेगी और दूसरी उसका दूध खरीद कर अपने शिशुओं को पिलायेगी । ठीक उसी तरह जैसे एक वर्ग अपना खून बेच रहा है और दूसरा अपने मरीज को अपना खून देने के बजाय ,खरीद कर काम चला रहा है । इसलिए हमें ऐसी अवधारणा को लागू करने के पूर्व इसके अमानवीय पक्षों पर जरूर विचार कर लेना चाहिए ।
कुलीनतावादः आरक्षण से आशीष नंदी तक

दलितों और पिछड़ों को सत्ता और समाज की मुख्यधारा में लाने के आधे-अधूरे प्रयास और उनके पढ़े-लिखे तबके में समानता की चाह ने कुलिनतावादियों के अंदर कई प्रकार की बैचैनी पैदा की है । उन्हें  आक्रमण करने के लिए जो सबसे कारगर हथियार मिला है, वह है योग्यता का जन्मजात एकाधिकार और वे कतई यह विश्वास करने को तैयार नहीं हैं कि कुल मिलाकर आरक्षण ने समाज की योग्यता को प्रतिस्पर्धा के द्वारा निखारा है । एक ओर जहां वे अति आधुनिक होते समाज के दोहन के औंजारों को अपने अनुकूल बनाने में लगे हैं तो दूसरी ओर वृहत्त समाज की प्रतिस्पर्धा को कुंठित और हतोत्साहित करने के तमाम दोगले रास्ते भी अख्तियार करते नजर आ रहे हैं । अमूमन आज के कुलीनतावादियों की नई पौधों के दिमाग में यह बात डाली जा चुकी है कि आरक्षण के चलते उनका नुकशान हो रहा है और पिछड़े या दलित उनका हक मार रहे हैं । वे अपने हक के लिए और अवसरों की मांग नहीं करते, बल्कि दलितों को क्यों रिआयत मिले, इस बात से कुंठित हैं । ये कुलीनतावादी, प्रोमोशन में आरक्षण के सवाल पर पिछड़ों को अपने पाले में डालने की पूरी कोशिश में लगे हैं तो जातिदंश के विरूद्ध विद्रोह को दबाने के लिए पिछड़ों को कुछ हद तक, बेशक वह ऊपरी तौर पर ही सही, अपनी ओर खिसका कर एक सामाजिक सेफ्टीवाल्व का निर्माण कर चुके हैं और कहीं-कहीं तो दलितों पर अत्याचार की अगुवाई, पिछड़ों से कराने के कुचक्र में सफल भी हुये हैं ।
  पिछड़ों को इस तथ्य को समझना हेागा कि दलित विरोध से उनका भला नहीं होने वाला । सत्ताइस प्रतिशत आरक्षण का झुनझुना, ख्याली पुलाव है । पिछड़ों  के कुछ तबके ऐसी स्थिति में आ चुके हैं जो स्वतः उससे अधिक पाने के हकदार हैं । कई प्रतियोगिताओं में यह देखने को मिला है कि पिछड़ों के प्राप्तांक, सवर्णो से कम नहीं रहे । ऐसे में या तो उन्हें आबादी के अनुरूप आरक्षण मिले अन्यथा सत्ताइस प्रतिशत के भुलावे से मुक्त हुआ जाये ।  
अस्सी के दशक के बाद से कुलीनतावादियों को लगा की आरक्षण के सवाल को, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित पचास प्रतिशत की बाड़ेबंदी के अलावा वे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं तो उन्होंने अपने आक्रमण के तरीके बदल लिए । सबसे पहले यह विचार उछाला गया कि गांव-देहात से जो लड़के उच्च शिक्षा संस्थानों में आते हैं, वे पठन-पाठन का माहौल खराब करते हैं । उन्हें रोकने के लिए जो तरीके इजाद किए गये उनमें प्राथमिक पाठशालाओं में अध्यापकों की भर्ती रोक कर, उन्हें मात्र खिचड़ी खिलाने का संस्थान बना दिया गया । वित्तविहीन स्कूलों की स्थापना कर माध्यमिक शिक्षा को न केवल बर्बाद किया गया बल्कि नकल माफियाओं को सक्रिय कर पूरी सरकारी पढ़ाई-लिखाई को ककहरा ज्ञान तक सीमित कर दिया गया । कोढ़ में खाज का काम किया हर हाल में पास कराऊ नीति या जल्दी-जल्दी बिना पढ़े उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन ।  उसी के समानान्तर पब्लिक स्कूलों में, जहां न तो आरक्षण की गुजाईश थी और न गरीबों के बस में फीस चुका पाने की क्षमता, वहां कुलिनतावादियों के बच्चों ने एकाधिकार जमा कर बेहतर शिक्षा को एक बार फिर अपने गिरफ्त में ले लिया । देश की शिक्षा नीति का खाका तैयार करने की जिम्मा अम्बानी और बिड़ला जैसे उद्योगपतियों को दिया गया जिन्होंने न केवल ऊंची फीस दरों की वकालत की बल्कि तकनीकि संस्थानों को नीजि हाथों में सौंप कर ‘पेड सीटों’ की निलामी कर बहुत हद तक आरक्षण के प्रभाव को नेस्तनाबूद कर दिया । यह एक प्रकार से पैसे वालों के अयोग्य बच्चों के लिए अपरोक्ष आरक्षण है, जिसका लाभ कुलीनतावादियों को मिल रहा है । जो लोग आरक्षण के सवाल पर योग्यता की बात करते हैं वे कभी भी पेड सीटों के औचित्य पर सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी महंगी होती पढ़ाई और भाषा की कुलीनता का सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी मातृ भाषा में शिक्षा का सवाल नहीं उठाते । वे कभी भी नई तकनीति के निरंतर बदलते रहने और इस दौड़ में गांव के व्यापक दलितों और पिछड़ों को पीछे ढकेलने का सवाल नहीं उठाते ।
नई अर्थव्यवस्था की कोख से शिक्षा और स्वास्थ्य पर एकाधिकार करने वाली व्यवस्था पैदा की गई है जो कुलीनतावाद का पोषण करती है तथा दलितों और पिछड़ों का रक्त चूसती है ।  यहीं से भ्रष्टाचार का भी विकृत विकार पैदा किया गया है । सत्ता संस्थानों के अरबों की लूट को पचाने के लिए गांव की पंचायती व्यवस्था में खैरातबांटू योजनाओं के सहारे लूट के अवसर उपलब्ध करा कर, हम्माम में सब नंगे का पाठ पढ़ा, मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह ध्वस्त किया गया है और एक खास तरह के सता केन्द्र का निमार्ण कर दलितों और पिछड़ों को साधने का काम किया गया । ऐसी संस्कृति में भ्रष्टाचार और अपने सारे कुकर्मो को ढंकने के लिए ‘मैं अन्ना हूं’ जैसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी विकसित किये गये । कारपोरेट लूट को संरक्षण और जनतांत्रिक शक्तियों को गुमराह करते हुये, एन.जी.ओ. का फैलाव कर, बचे खुचे सरकारी गढ़ों पर कब्जा जमा लेने का कुचक्र रचा गया । सरकारी नौकरियों में नब्बे के दशक से भर्तियों को सीमित कर, तमाम दायित्वों को अपने हाथों में ले लेने की चाल, आरक्षण के प्रभाव को सीमित करने का एक और हथियार है । बेशक भ्रष्टाचार एक मुद्दा तो है, लेकिन भ्रष्टाचार की लड़ाई में जो महारथी शामिल हैं तो तेलगी घोटाले से लेकर टू जी घोटाले के वाहक हैं । वे देश की प्राकृतिक संपदा को दोहन करने का आधार तैयार करने में लगे हैं । उनकी नजर में अरबों के घोटाले, व्यवसाय की हिस्सा होते हैं और एक सरकारी मुलाजिम द्वारा सौ रुपये  रिश्वत, जेल के लिए पर्याप्त होती है । 
ऐसी संस्कृति से कुलीनतावाद फलता-फूलता है और समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था पर उसका आधिपत्य स्थापित हो जाता है । योग्यता की दुहाई देने वाले कुलनों ने कभी भी दलितों की योग्यता को सम्मान नहीं दिया है और बहुत हद तक उसको दोयम दर्जे का सिद्ध करने का षणयंत्र किया है ।
 यूं तो विश्वपटल पर भी जातिवाद, नस्लभेद या रंगभेद के रूप में कुलीनतावाद दिखाई देता है पर उसका चरित्र भारतीय समाज के कुलीनतावादी चरित्र से भिन्न हैं । हमारे यहां कुलीनतावाद, वर्णवाद से घुलामिला है जो आशीष नंदी जैसों की जुबान से राजनैतिक सवालों को कुलीनतावादी बेशर्मी से उठाता है कि ‘यह एक तथ्य है कि सबसे अधिक भ्रष्ट ओ.बी.सी. और अनुसूचित जातियों से आते हैं और अब तेजी से अनुसूचित जनजातियों के लोग भी शामिल होते जा रहे हैं ।’ उसके पास कोई तथ्य, कोई आधार न होते हुये भी पश्चिमी बंगाल का एक ऐसा बेहूदा उदाहरण है, जिसे किसी भी समाजशास्त्रीय नजरीये से प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।   वह यह बताने को तैयार नहीं कि स्वीस बैंकों में जिनके पैसे जमा हैं वे किस जाति या वर्ग के हैं  या 2- जी स्पेक्ट्रम का 1.7 लाख करोड़, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का 70,000 करोड़, तेलगी के घोटाले का 20,000 करोड़, सत्यम का 14,000 करोड़, बोर्फोस का 16 मीलियन डालर, जैन हवाला का 18 मीलियन डालर, आई.पी.एल, हर्षद मेहदा, केतन पारेख और इंडिया बैंक कर्ज के घोटालों में किस जाति या वर्ग के लोग शामिल थे । केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने जिन 95 भ्रष्ट अफसरों की सूची जारी की है उनमें 6 दलितों और पिछड़ों के अलावा कौन हैं ?
 आशीष नंदी के बयान के ‘वैचारिक पक्ष’ को समझाने में तमाम विचारवान लग हुये हैं । कुछ का कहना है कि ‘अन्योक्ति और वक्रोक्ति’ में अपनी बात कहने के आदी नंदी के बयान की चर्चा करने के बजाय उनके ‘विचार’ समझने की कोशिश करनी चाहिए जिससे कि उनके जैसे ‘अंतर्दृष्टि संपन्न समाज-शास्त्री के साथ अन्याय न हो । दरअसल विचार की गूढ़ता, दार्शनिकता और उसके भावों के सहारे, सरल, सीधे, अल्पविकसित या विकासमान समाज का आखेट करना आसान होता है । यह आखेट, सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों रूपों में संभव है । अब यहां कौन सकारात्मक और कौन नकारात्मक की भूमिका है, इसे आशीष नंदी के पिछले विचारों को परखने की भी जरूरत है । राजस्थान के देवराला सती कांड के समय नंदी साहब ने फरमाया था कि सती होना, महान भारतीय परंपरा से प्रेरित एक अत्यंत साहसिक कृत्य है और रूप कुंवर की हिंसक मृत्यु, आधुनिकता की ताकतों के खिलाफ परंपरा के दावे का सशक्त प्रतीक है । नंदी साहब सेकुलरवाद की व्याख्या में कहते हैं कि यह पश्चिमी दुनिया में प्रयोग में आनेवाला शब्द है जिसे भारत ने आयात कर लिया है । इतिहासकार संजय सुब्रह्मण्यम ने इस बात की आलोचना करते हुये कहा है कि ‘सेकुलरवाद’ पश्चिम में आम प्रचलन का शब्द नहीं है और न भारत में उसका वही अर्थ है जो युरोप में । नंदी साहब हिन्दू न होते हुये भी भारत के अतीत के दलित विरोधी वाले स्वर्णिम युग के प्रति रूमानी मोह भी रखते हैं । खेद का विषय तो यह है कि कुछ पिछड़े और दलित विचारक भी उनके वक्तव्य का मर्म ठीक वैसे ही समझाने लगे हैं जैसे ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, इ सब ताड़न के अधिकारी’ का अर्थ कुलीनतावादी समझाते हैं कि दरअसल तुलसी दास ‘ताड़न’ नहीं, शूद्रों के ‘तारन’ अर्थात ‘तारण’ की बात करते हैं ।
 कुल मिलाकर यही कुलीनतावादियों के ‘विचार’ का मामला है । दलित विरोधी बयानों के बाद अक्सर उन्हें विचार का ख्याल आता है । अगर दलितों और पिछड़े ज्यादा भ्रष्ट हैं तो दुनिया के भ्रष्ट देशों में भारत का 94वां स्थान क्यों है ? क्या सत्ता में दलितों बौर पिछड़ों की भागीदारी 50 प्रतिशत से अधिक हो गई है ? जहां तक पिछड़ों की संख्या का सवाल है, वह कुछ राज्यों में 27 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद, अभी भी वे प्रशासकीय पदों पर चार प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाये हैं, आई.ए.एस जैसे पदों पर तो वे दो प्रतिशत से भी कम हैं । फिर भ्रष्टाचार कहां पनप रहा है ? दरअसल कुछ चालाक और धूर्त, सदियों से लूट का माल अकेले खाते रहे हैं । अब उन खुला चरने वाले सांड़ों को चुनौती मिल रही है सो बेचैन हैं । सबसे ज्यादा दलित और पिछड़ों को, तमाम सामाजिक बंधनों के सहारे लूट कर अपना घर भरने वाले अगर उन्हें ही भ्रष्ट कहते हैं तो यह समाज में हुये आर्थिक विकास और उससे उपजे नये विचारों की एक बानगी भर है ।
जो कुलीनतावादी हिन्दू समाज में अंतर्निहित जातिद्वेष की समाप्ति की घोषणा करते हैं उन्हें तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में दलितों की 285 झोपडि़यों में आग लगा देने वाली घटना का संदर्भ लेना चाहिए जहां एक दलित लड़के के सवर्ण लड़की से ब्याह रचा लेने से  कुलीन जाति का लड़की का पिता, दलित दामाद को स्वीकार करने के बजाय, आत्महत्या कर लेता है । पटना विश्वविद्यालय के भीमराव अम्बेडकर वेल्फेयर छात्रावास पर सैदपुर छात्रावास के कुलीन जाति के कुख्यात लड़के,  हाकी, डंडों से लैश हो ‘ब्रह्मेश्वर मुखिया जिंदाबाद,’ ‘मुखिया अमर रहें’ का नारा लगाते हुए आक्रमण करते हैं, बम, कट्टों से लैश हो कहते हैं कि ‘तुम हरिजन हो ? तुम्हें पढ़ने-लिखने का कोई हक नहीं । तुम्हारा काम जूता-चप्पल पालिस करना है । तुम्हारे पूर्वज भी यही काम करते आये हैं । तुम छात्रावास छोड़ दो नहीं तो जनसंहार हो कर रहेगा ।’ वे दबाव बना कर अम्बेडकर छात्रावास की बिजली  और पानी की आपूर्ति बंद करा देते हैं और पिछड़ों की सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होती ।

 ऐसे में पिछड़ों को सामाजिक न्याय की लड़ाई में अपने चक्षु खुले रखने होंगे । अजीब बिडम्बना है कि जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियां, जातिवाद की प्रताड़ना से आहत तो दिखती हैं पर दलितों को प्रताडि़त या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण , शादी-ब्याह के अवसर पर दलितों को खिलाने में या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नजरिया सवर्ण रखते हैं वही नजरिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबंदी अभी तक नहीं बन पाई है और पूरा हिन्दी समाज दलित,कुर्मी,लोधी,यादव,सैनी,पटेल,गंगवार आदि में बंटा पड़ा है । आजादी के साठ वर्षों के बाद भी अधिकांश पढ़े-लिखे दलितों या पिछड़ों में सकारात्मक सोच या आत्मबल पैदा नहीं हो पाया है । वे स्वयं जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं । वे प्रतिक्रिया स्वरूप वही व्यवहार करते हैं जो उनके साथ सवर्ण समाज ने किया होता है । यानी कि जातिवादी मानसिकता के खिलाफ जातिवादी मानसिकता । ऐसी मानसिकता जातिवाद से मुक्त करने के बजाए, उसे और मजबूत करती है । उनका नुकसान करती है । इसलिए जरूरत है वैचारिक रूप से मजबूत क्रांतिकारी पहल की ।
 जातिवादी हथियार के बल पर ही कुलीनतावादियों ने लम्बे समय तक राज किया है । लम्बे समय से शिक्षा, ज्ञान, समृद्धि पर एकाधिकार बनाए रखा है और सदियों से वंचित वर्ग को खुली प्रतियोगिता में उतरने की चुनौती दी है । यहां सिर्फ यही कहना पर्याप्त होगा कि पौष्टिक भोजन करने वालों की कुपोषण के शिकार लोगों से दौड़ कराने की नीति न्यापरक नही कही जा सकती  जातिवाद में विश्वास न करने वाले वामपंथ को जाति-दंश की भयावहता को समझना होगा । केवल आर्थिक संरचना को ध्यान मेें रखते हुए समाज के वर्गीय अवधारण से संधर्ष करने की कार्यनीति सफल न होगी । सामाजिक-अस्मिता की अनदेखी उन्हें हाशिये पर रखेगी । समाज के वर्गीय अवधारण के विरूद्ध संघर्ष शुरू करने के पूर्व जातिवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष विकसित किया जाना चाहिए । अपने नेतृत्व में पिछड़ों और दलितों को आगे कर जातिवाद के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा करना होगा। अन्यथा न तो आरक्षण के प्रश्न पर बंटे समाज को समझाया जा सकता है और न आशीष नंदी जैसों की शरारती बातों को रोका जा सकता है
ग्राम अदालतों की प्रासंगिकता पर सवाल

न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर ने कहा है कि देश का कोई भी नागरिक धन, दूरी और अशिक्षा से न्याय से वंचित नहीं रहे, इसलिए ‘न्याय आप के द्वार’ की अवधारणा के साथ ग्राम न्यायालयों की स्थापना की जा रही है । जनता को त्वरित न्याय दिलाने, निचली और ऊपरी न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों का बोझ कम करने के लिए हाल में ही न्यायमूर्ति कबीर ने राजस्थान में 46वें ग्राम न्यायालय भवन का लोकापर्ण  किया है । वैसे तो पिछले सालों में ही ग्राम न्यायालयों के गठन का फैसला लिया गया था और केंद्रिय मंत्रीमंडल ने इससे संबंधित विधेयक की मंजूरी दे दी थी लेकिन इस दिशा में अब ठोस पहल दिखाई दे रही है ।  योजना यह है कि देश सतर पर छह हजार ‘ग्राम न्यायिक अधिकारियों’ं की भर्ती की जाये जो ग्रामीण स्तर पर मुकदमों का निपटारा कर सकें । सरकार की मंशा है कि न्यायिक सुधार कर आम जनता को उसके द्वार पर ही न्याय उपलब्ध करा दिया जाए जिससे उसे कोर्ट-कचहरी का चक्कर न लगाना पड़े।
इस अवधारणा के पीछे छिपे उद्देश्य की पवित्रता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती । गांवों में आपसी रंजिश, जमीद-जायदाद के बंटवारे, खेत-खलिहान के झगड़े या अन्य छोटे-छोटे घरेलू झगड़ों से संबंधि तमाम मामले निचली अदालतों में बीसियों साल तक लम्बित रहते हैं । कचहरी की दौड़-धूप में पीढ़ी दर पीढ़ी खपती चली जाती है । न्याय की उम्मीद में मजदूर वर्ग अपना पेट काट कर वकील और मुन्शियों का जेब भरता रहता है और न्याय उसके लिए मृगमरीचिका बनी रहती है । बिना ट्रायल के विचाराधीन कैदी सलाखों के पीछे जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा गुजार देते हैं । इनमें से कइयों को युवावस्था में सलाखों के पीछे डाला गया होता है । कुछ बुढ़ापे में जब निर्दोषमुक्त होते हैं तब तक वे जघन्य अपराधों जैसी सजा काट चुके होते हैं । तब उनके लिए इस न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता । मुंछ की लड़ाई में वादी और प्रतिवादी दोनों हारते हैं । दोनों छले जाते हैं । गांव के थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे पैरोकार (दलाल), अनपढ़ गरीबों के मुकदमों की पैरवी कर चाय-पानी का जुगाड़ कर लेते हैं ।
  ऐसे मामलों में यदि त्वरित न्याय नहीं मिलता तो वादी और प्रतिवादी दोनों के लिए यही हितकर होगा कि वे गांव के मामले गांव में निपटाएं । पर कैसे ? इसी समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है ।
ग्राम न्यायालयों की अवधारण कोई नहीं बात नहीं है । महात्मा गांधी ने भी असहयोग आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों को ऐसा करने का निर्देश दिया था पर उस दिशा में सफलता न मिल सकी । हमारे ग्रामीण समाज का ढांचा सामंती है। गांव के दबंगों के खिलाफ गांव में ही बोल पाना गरीब जनता के वश में नहीं होता । जातिवाद के दूसरे घिनौने रूप सामने आ चुके हैं । दलितों की बस्तियों में आग लगाने या गरीबों की बहू-बेटियों पर हाथ डालने की घटनाएं आए दिन समाचारपत्रों में रहती हैं । ऐसे समाज में बिना पर्याप्त सुरक्षा और सामाजिक भेद-भाव को दूर किए ग्राम न्यायालयें को प्रभावशाली बना पाना असंभव होगा । बिचैलिय या पैरोकार कत्तई नहीं चाहेंगे कि मामला गांव में सुलटे । आखिर इससे उनकी कमाई मारी जायेगी । निष्पक्ष न्याय के लिए  ग्राम न्यायिक अधिकारियों की सुरक्षा जरूरी होगी । आज भी देश के तमाम गांवों तक पुलिस बलों की पहुंच किसी घटना, दुर्घटना के समय ही हो पाती है । अब जब कि देश के तमाम हिस्सों में आतंकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद ने अपनी पैठ बना ली है, तमाम बिहड़ों में थानों और पुलिस बलों की सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा होता है, वैसे में गांवों में अदालतें निष्पक्ष काम कैसे करेंगी ? क्या यह संभव नहीं कि कोई गुंड़ा या माफिया न्यायाधिशों को दबाव में लेकर अपने मनमाफिक फैसला करा ले ?
न्याय पंचायतों का ह्रस हमने देखा है । गांव के प्रभावशाली लोगों के दरवाजे पर ही ऐसे न्यायालय काम करते थे । वे ही मेज-कुर्सी चाय-पानी की व्यवस्था करते थे और अपने स्तर से अनपढ़ जनता के मामलों का पक्ष रखते, रखवाते थे । गांव की गरीब जनता तब भी गांव के पुराने जमींदारों के रहमोकरम पर जिंदा थी । गांव की गुटबाजी भी सीधे तौर पर न्याय पंचायतों को प्रभावित करती थी । अब तो गांवों का माहौल पहले की तुलना में और भी खराब हुआ है । पंचायतों के जरिए विकास के नाम पर जो पैसा पहुंच रहा है वह गांव में कटुता, हिंसा और गुटबाजी को बढ़ा रहा है । कमीशनखोरी का विकेन्द्रीकरण गांवों तक हो गया है ।
पूर्व मुख्य न्यायाघीश वी0एन0खरे के अनुसार नियमित अदालतों में न्यायाधीशों की कमी देखते हुए ग्रामीण अदालतों के लिए छह हजार योग्य न्यायाधीशों को ढूंढना आसान न होगा । ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए कि वर्तमान न्यायिक तंत्र का और विस्तार किया जाता, उसे सुदृढ़ और सार्थक बनाया जाता । जजों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की जाती, वादों के निस्तारण की समय सीमा तय होती और वकीलों की मनमानी नियंत्रित की जाती । हमारे देश में न्याय व्यवस्था  पर दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम खर्च किया जाता है । दूसरी ओर ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए तो अत्याधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी । अगर प्र्याप्त धन उपलब्ध न हो पाया तो आधे-अधूरे प्रयास निरर्थक हांेगे ।
 हमारे यहां वादों के निपटाने का ढं़ाचा औपनिवेशिक काल का है । उलझाऊ जिरह और झूठी गवाही भी मुकदमों की नियति तय करते हैं । गवाहों की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण भयवश लोग गवाही देने से बचते हैं । यहां वादों की प्रवृति के आधार पर समय सीमा तय नहीं होती । इसलिए तारीख दर तारीख लगती जाती है । वाद दायर करने की जटिलता, वकीलों पर निर्भरता और उनकी मनमानी, आए दिन हड़ताल पर चले जाना, मामले को लम्बे समय तक लटकाए रहना, पक्षकारों का शोषण करने का औंजार बन गया है । फीस की दर अनियंत्रित है । वकीलों की संख्या और गुणवत्ता तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है ।
बेहतर यह होता कि पहले इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया जाता । छोटे-छोटे मामलों का निस्तारण तो ग्राम सभा और सरपंचों के माध्यम से किए जाने के लिए कारगर दिशा निर्देश बनाए जा सकते हैं । ज्यादातर गांवों में पंचायत घर बने हुए हैं । उनमें सामान्य मामलों को निपटाने के लिए कुछ कानूनी अधिकार दिए जा सकते हैं । सम्यक फैसलों को स्वीकार करने की कानूनी व्यवस्था कर, बिना अतिरिक्त धन खर्च किए इस दिशा में कुछ बेहतर काम किया जा सकता है । विकास संबंधी कार्य और न्यायिक कार्यों के लिए ग्राम सभा का विभाजन किया जा सकता है । आज ज्यादातर ग्राम प्रधान केवल कमीशनबाजी में उलझ कर रह गए हैं । आखिर ग्रामीण अदालतों के फैसलों के खिलाफ ऊपरी अदालतों में अपील की आजादी मुकदमों के बोझ को तो कम होने नहीं देगी ? इसलिए बेहतर होगा कि छह हजार ग्राम न्यायिक अधिकारियों की संख्या जनपदीय न्यायालयों में बढ़ाकर, उन्हें बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराकर लम्बित वादों का त्वरित निस्तारण किया जाता ।
 
जाति और मिथकीय समाजशास्त्र में फंसी वोट की राजनीति

आज एक बार फिर हिन्दी पट्टी के बीमारू राज्यों में से एक, उत्तर प्रदेश में परशु (फरसा) की धमक सुनाई देने लगी है । ब्राह््मण वोटों  की चिंता में गली जा रहीं पार्टियों ने जिस मिथक को केन्द्र में रख, सत्ता सिंहासन को पाने का ख्वाब बुना है वह अमानवीय, क्रूर, आतताई तो रहा ही है, ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ राम के विरुद्ध भी रहा है । हिन्दी पट्टी के इस दूसरे दुर्भाग्य की कहानी यहीं से शुरू होती है । पहली कहानी तब शुरू हुई थी जब वामपंथियों ने यहां की क्रूर जाति व्यवस्था से जूझने के बजाय,उससे किनारा करना माक्र्सवाद की प्राथमिकता समझा । उनकी इस समझ को दलितों और अति पिछड़ों ने स्वीकार करने के बजाय, जातिगत आधार पर अपनी गोलबंदी कर सुनहरे भविष्य का ख्वाब पाला । इस ख्वाब के चलते दलितों और पिछड़ों में जो गोलबंदी हुई, उसने हिन्दी पट्टी से वामपंथ का सफाया कर दिया । प्रतिबद्ध राजनीति की जमीन खिसकाने में न केवल सनातन धर्म ने अपितु दलित और पिछड़ों के अंदर खदक रहे जातिदंश की पीड़ा ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । हिन्दू धर्म के अमानवीय और गैर बराबरी की संस्कृति के कारण जो आक्रोश उपजा था उसने सत्ता में दलितों और पिछड़ों को महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंचा दिया । जाहिर है यह जातिगत गोलबंदी किसी वैचारिक प्रतिबद्धता से बंधी नहीं थी फिर भी उसने समाज की अगड़ी जातियों के अंदर बेचैनी तो पैदा की ही । मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद यही बेचैनी हिंसक रूप में हमारे सामने आयी और समाज अपनी बुनियादी समस्याओं से इतर एक बार फिर विकास के समतामूलक माॅडल को अपनाने में विफल रहा ।  अब उन दलित और पिछड़ों के साथ यह दूसरा दुर्भाग्य ‘परशुराम’ रूपी मिथकीय संस्कृति को आत्मसात करने से शुरू हो चुका है और संभव है समाज के ताने-बाने को बुनने का यह प्रयोग, ज्यादा दुखद हो ।  यह अजीब बिडंबना ही कही जा सकती है कि जहां सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह या राम प्रसाद बिस्मिल के नाम पर कोई जयंती या समारोह न होते हों वहां एक मिथकीय चरित्र ‘परशुराम’ के नाम न केवल छुट्टी घोषित कर दी जाती है अपितु हिंसा का प्रतीक फरसा, स्वाभिमान और ब्राह्मण समाज के ‘मान’ का प्रतीक बन जाता है । परशुराम का मिथकीय चरित्र जिन धार्मिक किताबों में कैद है उनमें बाल्मीकि रामायण, महाभारत और श्रीमद् भागवत मुख्य हैं । लगभग सारे गपोड़ कथाओं में परशुराम अत्यंत क्रोधी, घमंडी, हत्यारे और अराजक व्यक्ति के रूप में चित्रित किए गए हैं । मिथक कहते हैं कि परशुराम ने अपने पिता के कहने पर मां रेणुका और अपने से बड़े चार भाइयों का क़त्ल कर दिया था।  परशुराम ने अपनी माँ की हत्या किस अपराध में की थी इसे जान लेना ज्यादा जरूरी है । हैहय वंश के राजा अर्जुन  और उसके १००० पुत्रों की हत्या से पापमुक्ति के लिए तीर्थ पर गए परशुराम जब लौटे तो उनकी मां जल भरने नदी पर गयीं  थीं . वहाँ गन्धर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ काम-क्रीडा कर रहे थे । उसे देखने में तन्मय हो जाने के कारण रेणुका को विलम्ब हो गया । बस इसी पर क्रुद्ध हो कर उनके पिता जगदग्नि ने अपने पुत्रों को रेणुका का वध करने को कहा । परशुराम के आलावा अन्य कोई पुत्र तैयार नहीं हुआ । जाहिर है भाइयों ने संघर्ष किया लेकिन खूंखार परशुराम ने माँ और भाइयों का क़त्ल कर दिया ।
 हैहय वंश का राजा अर्जुन और परशुराम के संघर्ष का मिथक भी दिलचस्प है । एक बार अर्जुन ने अपनी सौ भुजाओं से नर्मदा का पानी रोक दिया जिससे रावण का शिविर डूबने लगा । रावण ने जब अर्जुन के पास जाकर भला बुरा कहा तो अर्जुन ने रावण को कैद कर लिया। बाद में पुलत्स्य के कहने पर अर्जुन ने रावण को मुक्त किया । अर्जुन एक बार जगदग्नि के आश्रम पर पहुँचा और उनकी कामधेनु का अपहरण कर लिया । परशुराम ने अपने फरसे से उसकी 100 भुजाएं और सर काट दिया । अर्जुन के क्षत्रिय होने मात्र से ही उसके बाद परशुराम ने २१ बार पृथ्वी से समस्त क्षत्रियों का कत्ल किया । उनके रक्त को पांच कुंडों में जमा किया और उस खून से अपने पितरों का तर्पण किया । 
ऐसे में सहजता से अनुमान लगाया जा सकता हैं कि आज ऐसे मिथक को पुन स्थापित करने का क्या मकसद हो सकता है ? किसी जाति का प्रतीक अगर फरसा जैसा घातक अस्त्र बन जाए, जिससे मात्र हत्या ही की जा सकती है, तो निःसंदेह उसके वाहकों (समर्थकों और महिमामंडि़त करने वालों) के आचरण और खौफ के दबदबेपन को स्वीकार करने की विवशता के समाजशास्त्र को समझने की असफलता स्वीकार करनी चाहिए । चाकू से हत्या के अलावा दूसरे काम जैसे सब्जी काटने से लेकर झाड़ियों की कटाई-छंटाई भी हो सकती है । तलवार से भी इनमें से कुछ काम लिए जा सकते हैं मगर फरसे से ...? शायद ही कभी फरसे से किसी की हत्या के अलावा दूसरा कोई काम लिया गया हो । तो यह है समाज को मार्गदर्शन देने वाली संस्कृति और सभ्यता, जो सदियों से इस देश में बंधुत्व, राष्ट्रवाद या न्यूनतम न्याय की अवधारणा को फरसे से लागू करती आई है । आज अगर वोट के लिए राजनीति की दिशा और दशा को इतना कलुषित करने का खेल होता रहेगा तो यह चिंता का विषय होना चाहिए कि आजादी की 100वीं वर्ष गांठ हम किस तरह मनायेंगे । ब्राह्मण समाज को अगर अतीत के मिथक को ही अपना आदर्श बनाना था तो उनके पास परशुराम के अलावा अनेकों बेहतर विकल्प मौजूद थे । अतीत के ज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म पर उनका एकाधिकार रहा ही है । ऐसे में किसी विवादित और हिंसक चरित्र के बजाए, गैर विवादित और ज्ञानवान चरित्र को अपना आदर्श बनाना चाहिए था जो वास्तव में अनुकरणीय हो । अगर सदियों से हिन्दू समाज पर एकाधिकार स्थापित करने वाली जाति आज हिंसा को अपना आदर्श बनाने जा रही है तो निःसंदेह वह समाज को तोड़ने की दिशा में ही आगे बढ़ रही है । उसकी यह नीति हिन्दू धर्म को विद्रोह का अखाड़ा बनायेगी जो अंततोगत्वा उसी के विरूद्ध परिणाम देगी । आज के विकास का नया पैमाना और नई अर्थनीति, कम्यूटरीकृत होने के बावजूद कबिलाई समाज से आदर्शों से मुक्त नहीं हो पाई है । खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले उसी के परिणाम हंै जो आज भी प्यार पर पहरे बैठा रहे हैं । ऐसे में आधुनिक समाज एक हिंसक समाज में तब्दील होने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है । हिंसा का जो स्वरूप अमेरिकी स्कूलों, तालिबानियों और बारूदी ढेर पर बैठे राष्ट्रों के बीच दिखाई दे रहा है, वही समाज का आधुनिक अधिनायकवादी चरित्र है । संभव है परशुराम समस्त ब्राह्मणों के बजाय कुछ अधिनायकवादी चरित्रों के प्रतीक मात्र हों फिर भी चिंता का उभरना गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता ।