पृष्ठ

रविवार, 9 जून 2013

जाति और मिथकीय समाजशास्त्र में फंसी वोट की राजनीति

आज एक बार फिर हिन्दी पट्टी के बीमारू राज्यों में से एक, उत्तर प्रदेश में परशु (फरसा) की धमक सुनाई देने लगी है । ब्राह््मण वोटों  की चिंता में गली जा रहीं पार्टियों ने जिस मिथक को केन्द्र में रख, सत्ता सिंहासन को पाने का ख्वाब बुना है वह अमानवीय, क्रूर, आतताई तो रहा ही है, ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ राम के विरुद्ध भी रहा है । हिन्दी पट्टी के इस दूसरे दुर्भाग्य की कहानी यहीं से शुरू होती है । पहली कहानी तब शुरू हुई थी जब वामपंथियों ने यहां की क्रूर जाति व्यवस्था से जूझने के बजाय,उससे किनारा करना माक्र्सवाद की प्राथमिकता समझा । उनकी इस समझ को दलितों और अति पिछड़ों ने स्वीकार करने के बजाय, जातिगत आधार पर अपनी गोलबंदी कर सुनहरे भविष्य का ख्वाब पाला । इस ख्वाब के चलते दलितों और पिछड़ों में जो गोलबंदी हुई, उसने हिन्दी पट्टी से वामपंथ का सफाया कर दिया । प्रतिबद्ध राजनीति की जमीन खिसकाने में न केवल सनातन धर्म ने अपितु दलित और पिछड़ों के अंदर खदक रहे जातिदंश की पीड़ा ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । हिन्दू धर्म के अमानवीय और गैर बराबरी की संस्कृति के कारण जो आक्रोश उपजा था उसने सत्ता में दलितों और पिछड़ों को महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंचा दिया । जाहिर है यह जातिगत गोलबंदी किसी वैचारिक प्रतिबद्धता से बंधी नहीं थी फिर भी उसने समाज की अगड़ी जातियों के अंदर बेचैनी तो पैदा की ही । मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद यही बेचैनी हिंसक रूप में हमारे सामने आयी और समाज अपनी बुनियादी समस्याओं से इतर एक बार फिर विकास के समतामूलक माॅडल को अपनाने में विफल रहा ।  अब उन दलित और पिछड़ों के साथ यह दूसरा दुर्भाग्य ‘परशुराम’ रूपी मिथकीय संस्कृति को आत्मसात करने से शुरू हो चुका है और संभव है समाज के ताने-बाने को बुनने का यह प्रयोग, ज्यादा दुखद हो ।  यह अजीब बिडंबना ही कही जा सकती है कि जहां सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह या राम प्रसाद बिस्मिल के नाम पर कोई जयंती या समारोह न होते हों वहां एक मिथकीय चरित्र ‘परशुराम’ के नाम न केवल छुट्टी घोषित कर दी जाती है अपितु हिंसा का प्रतीक फरसा, स्वाभिमान और ब्राह्मण समाज के ‘मान’ का प्रतीक बन जाता है । परशुराम का मिथकीय चरित्र जिन धार्मिक किताबों में कैद है उनमें बाल्मीकि रामायण, महाभारत और श्रीमद् भागवत मुख्य हैं । लगभग सारे गपोड़ कथाओं में परशुराम अत्यंत क्रोधी, घमंडी, हत्यारे और अराजक व्यक्ति के रूप में चित्रित किए गए हैं । मिथक कहते हैं कि परशुराम ने अपने पिता के कहने पर मां रेणुका और अपने से बड़े चार भाइयों का क़त्ल कर दिया था।  परशुराम ने अपनी माँ की हत्या किस अपराध में की थी इसे जान लेना ज्यादा जरूरी है । हैहय वंश के राजा अर्जुन  और उसके १००० पुत्रों की हत्या से पापमुक्ति के लिए तीर्थ पर गए परशुराम जब लौटे तो उनकी मां जल भरने नदी पर गयीं  थीं . वहाँ गन्धर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ काम-क्रीडा कर रहे थे । उसे देखने में तन्मय हो जाने के कारण रेणुका को विलम्ब हो गया । बस इसी पर क्रुद्ध हो कर उनके पिता जगदग्नि ने अपने पुत्रों को रेणुका का वध करने को कहा । परशुराम के आलावा अन्य कोई पुत्र तैयार नहीं हुआ । जाहिर है भाइयों ने संघर्ष किया लेकिन खूंखार परशुराम ने माँ और भाइयों का क़त्ल कर दिया ।
 हैहय वंश का राजा अर्जुन और परशुराम के संघर्ष का मिथक भी दिलचस्प है । एक बार अर्जुन ने अपनी सौ भुजाओं से नर्मदा का पानी रोक दिया जिससे रावण का शिविर डूबने लगा । रावण ने जब अर्जुन के पास जाकर भला बुरा कहा तो अर्जुन ने रावण को कैद कर लिया। बाद में पुलत्स्य के कहने पर अर्जुन ने रावण को मुक्त किया । अर्जुन एक बार जगदग्नि के आश्रम पर पहुँचा और उनकी कामधेनु का अपहरण कर लिया । परशुराम ने अपने फरसे से उसकी 100 भुजाएं और सर काट दिया । अर्जुन के क्षत्रिय होने मात्र से ही उसके बाद परशुराम ने २१ बार पृथ्वी से समस्त क्षत्रियों का कत्ल किया । उनके रक्त को पांच कुंडों में जमा किया और उस खून से अपने पितरों का तर्पण किया । 
ऐसे में सहजता से अनुमान लगाया जा सकता हैं कि आज ऐसे मिथक को पुन स्थापित करने का क्या मकसद हो सकता है ? किसी जाति का प्रतीक अगर फरसा जैसा घातक अस्त्र बन जाए, जिससे मात्र हत्या ही की जा सकती है, तो निःसंदेह उसके वाहकों (समर्थकों और महिमामंडि़त करने वालों) के आचरण और खौफ के दबदबेपन को स्वीकार करने की विवशता के समाजशास्त्र को समझने की असफलता स्वीकार करनी चाहिए । चाकू से हत्या के अलावा दूसरे काम जैसे सब्जी काटने से लेकर झाड़ियों की कटाई-छंटाई भी हो सकती है । तलवार से भी इनमें से कुछ काम लिए जा सकते हैं मगर फरसे से ...? शायद ही कभी फरसे से किसी की हत्या के अलावा दूसरा कोई काम लिया गया हो । तो यह है समाज को मार्गदर्शन देने वाली संस्कृति और सभ्यता, जो सदियों से इस देश में बंधुत्व, राष्ट्रवाद या न्यूनतम न्याय की अवधारणा को फरसे से लागू करती आई है । आज अगर वोट के लिए राजनीति की दिशा और दशा को इतना कलुषित करने का खेल होता रहेगा तो यह चिंता का विषय होना चाहिए कि आजादी की 100वीं वर्ष गांठ हम किस तरह मनायेंगे । ब्राह्मण समाज को अगर अतीत के मिथक को ही अपना आदर्श बनाना था तो उनके पास परशुराम के अलावा अनेकों बेहतर विकल्प मौजूद थे । अतीत के ज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म पर उनका एकाधिकार रहा ही है । ऐसे में किसी विवादित और हिंसक चरित्र के बजाए, गैर विवादित और ज्ञानवान चरित्र को अपना आदर्श बनाना चाहिए था जो वास्तव में अनुकरणीय हो । अगर सदियों से हिन्दू समाज पर एकाधिकार स्थापित करने वाली जाति आज हिंसा को अपना आदर्श बनाने जा रही है तो निःसंदेह वह समाज को तोड़ने की दिशा में ही आगे बढ़ रही है । उसकी यह नीति हिन्दू धर्म को विद्रोह का अखाड़ा बनायेगी जो अंततोगत्वा उसी के विरूद्ध परिणाम देगी । आज के विकास का नया पैमाना और नई अर्थनीति, कम्यूटरीकृत होने के बावजूद कबिलाई समाज से आदर्शों से मुक्त नहीं हो पाई है । खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले उसी के परिणाम हंै जो आज भी प्यार पर पहरे बैठा रहे हैं । ऐसे में आधुनिक समाज एक हिंसक समाज में तब्दील होने की ओर अग्रसर दिखाई दे रहा है । हिंसा का जो स्वरूप अमेरिकी स्कूलों, तालिबानियों और बारूदी ढेर पर बैठे राष्ट्रों के बीच दिखाई दे रहा है, वही समाज का आधुनिक अधिनायकवादी चरित्र है । संभव है परशुराम समस्त ब्राह्मणों के बजाय कुछ अधिनायकवादी चरित्रों के प्रतीक मात्र हों फिर भी चिंता का उभरना गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता ।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें